Sunday, August 30, 2009

किसी सड़क से पूछना कैसा लगता है ठहरा सफर ......

किसी सड़क से पूछना कैसा लगता है ठहरा सफर
आईना बन गयी ज़िन्दगी पे, रोज़ देखता चेहरा सफर

कैसा लगता होगा दो जोड़े नन्हे पैरों को देखना गुज़रते रोज़
कैसा लगता होगा देखना भागते तेज़ बचपन को बिखरते रोज़
कैसा लगता होगा उन पैरों को फ़िर होते जवान देखना
कैसा लगता होगा फ़िर उन पैरों को होते उमर से हैरान देखना
क्या सोचती होगी सड़क एक दिन देख कर फ़िर उसकी कबर
किसी सड़क से पूछना कैसा लगता है ठहरा सफर ......

क्या अजीब लगता होगा देखकर ख़ुद पे पड़े किसी क खोये ख्वाब
क्या अजीब लगता होगा देखकर वो गीली मिटटी जहाँ मरने से पहले थे वो रोये खवाब
क्या अजीब सा लगता होगा देखकर ख़ुद पे फेंके अजनबियों के जब रिश्ते टूटे
क्या अजीब लगता होगा देखकर उन बोझिल उदास क़दमों को जिसके साथी छुटे
दिन में जो कब्रों में पड़े थे रात है उनकी सेहर
किसी सड़क से पूछना कैसा लगता है ठहरा सफर ......

क्या शर्मिंदगी होती होगी चुपचाप ख़ुद पे गुनाहों को होते देखना
क्या शर्मिंदगी होती होगी खून से सने लोगों को रोते देखना
क्या बारिश के सहारे चुपके से वो रो लेती होगी
फ़िर खून के वो दाग सारे धीरे से धो लेती होगी
क्या होती होगी तीरगी, होने पे वो अँधा सबर
किसी सड़क से पूछना कैसा लगता है ठहरा सफर ......

कैसी लगती होगी लाचार टपकती पसीने की बूंद ख़ुद पर
कैसी लगता होगा दुर्घटना में गिरता खून ख़ुद पर
कैसा लगता होगा महसूस करना जिस्म की टुकड़े भिकरे
कैसा लगता होगा देखना दिवंगत क अपनों क चेहरे उखड़े
क्या कभी वो पायेगी तह, है शुन्य से गहरा सफर
किसी सड़क से पूछना कैसा लगता है ठहरा सफर ......